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Department of Agriculture

Himachal Pradesh

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      Himachal Pradesh

        कीट प्रबंधन

        आक्रमण / लक्षण

        नियंत्रण

        सफेद सुंडी, कटुआ कीट व वॉयर वर्म: कटुआ पौधों को जमीन की सतह से काट देता है जबकि सफेद सुंडी व वॉयर वर्म आलुओं को खाते हैं।

        सफेद सुंडी

        कटुआ कीट

        वॉयर वर्म

        भृंगों एवं सुंडियों के लिए एकीकृत रोकथाम प्रणाली अपनाएं।

        व्यस्क भृंग की रोकथाम एवं प्रबंध: भृंग मई-जून के महीने में जमीन से बाहर निकलना शुरू हो जाते हैं। ये शाम के समय अंधेरा होते ही हजारों की संख्या में जमीन से बाहर निकलते हैं और पूरी रात पौधों के पत्तों को खाते रहते हैं। जिन पौधों पर भृंग इक्ट्ठे होते हैं उन पर मौनसून आरम्भ होते ही 750 मि.ली. डायमेथोएट 30 ई.सी. (रोगर, सी.पी.आर.आई. द्वारा अनुमोदित) से छिड़काव करें। मौनसून के आरंभ होने तथा भंगों के निकलने के 3-4 दिन के अन्दर सभी आस-पास के पौधों पर भी छिड़काव कर देना चाहिए। यदि मौनसून के आरम्भ होने से पहले ही भृंग निकल जाएं तो 2 छिड़काव देने चाहिए-पहला, मौनसून आरम्भ होने से पहले व दूसरा मौनसून उतरने पर ज्यादातर भृंग जून के दूसरे सप्ताह में निकलते हैं। इसलिए कीटनाशी रसायनों का छिड़काव जून के दूसरे सप्ताह में करें।

        यांत्रिक: रोकथाम के लिए पौधों को हाथ से हिलाना चाहिए व बांस के साथ लगाए गए हुक से हिलाना चाहिए ताकि भृंग जमीन पर गिरें और फिर उन्हें मिट्टी के तेल व पानी के मिश्रण में डालकर मार दें। यह काम रात के समय 8.30 से 11.30 के मध्य करना चाहिए। भृंगों की संख्या के आधार पर यह काम 4-7 दिन लगातार करना चाहिए। यदि कीट-ग्रस्त खेत के निकट कोई ऐसे पौधे हों जिन पर भृंग पलते हों उन पर कीटनाशी दवा का छिड़काव करें।

        सुंडियों की रोकथाम एवं प्रबंध: बिजाई से पहले खेत में फोरेट 10 जी (थिमेट) या कार्बारेल 4 जी (सेवीडाल) या फयुराडॉन 3 जी (कार्बोफ्यूरान) या क्वीनालफास 5 जी को 2500 ग्रा./ है. डालें। इनमें से फोरेट 10 जी. ज्यादा असरदार है। जुताई करते समय जो सुडियां दिखाई दें उन्हें इकट्ठा करके नष्ट कर दें। गुड़ाई के समय, जून के प्रथम सप्ताह में 4 ली. क्लोरपाईरोफॉस 20 ई.सी. (दरसवान / मासवान / 800 ग्रा.स.प / है. क्बीनालफास 25 ई.सी. 4000 मि.ली./ है. को खेत में डालें। दवाई को अच्छी तरह से रेत में मिला कर खेत में बिखेर दें और उसके बाद मिट्टी चढ़ा दें। जब दवाई डालें, उस समय खेत में अच्छी नमी होनी चाहिए।

        आलू का पतंगा (पी.टी.एम.): लार्वे पौधों, खेतों में जमीन से बाहर निकले आलुओं और गोदाम में आलुओं को हानि पहुंचाते हैं। यह पत्तों में सुरंगे बनाते हैं व तने के अंदर चले जाते हैं। गोदामों में लार्वे आलुओं पर आंखों के रास्ते अंदर चले जाते हैं व सुरंगे बना देते हैं। आलू के अंदर जाने के रास्ते के बाहर मल का इक्ट्ठा होना इसका लक्षण है। उसके बाद अन्य जीवाणुओं के आक्रमण द्वारा आलुओं में सड़न शुरू हो जाती है।

        • फसल की बिजाई के लिए स्वस्थ बीज का प्रयोग करें।
        • मेंढ़ों पर मिट्टी पूरी चढ़ाएं ताकि आलू बाहर न दिखाई दें।
        • आलुओं की खुदाई के बाद खेत में उन पर तरपाल / चादर ढक दें ताकि पतंगें उन पर अंडे न दे सकें।

        सावधानियां:
        खाने वाले आलुओं पर किसी भी प्रकार के कीटनाशी का प्रयोग न करें।

        हड्डा बीटल: व्यस्क कीट व शिशु पत्तों को छलनी कर देते हैं।

        भृंग के अण्डों व सुंडियों को इक्टठा कर के नष्ट करें।

        जैसिड और एफिड: जैसिड और एफिड पत्तों व फूलों से रस चूसकर हानि पहुंचाते हैं और विषाणु रोग फैलाते हैं।

        एफिड:

        जैसिड:

        750 मि.ली. मिथाइल डैमिटान (मैटासिस्टाक्स 25 ई.सी.) या डाईमिथोएट (रोगर 30 ई.सी.) को 750 ली. पानी में मिला कर प्रति हैक्टेयर छिड़काव करें।