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Department of Agriculture

Himachal Pradesh

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      Himachal Pradesh

        रोग प्रबंधन

         

        आक्रमण / लक्षण

        नियंत्रण

        जिवाणु तना सड़न: यह बीमारी प्रायः फसल में फूल आने के समय आती है। जमीन की सतह से ऊपर का तना गहरा भूरा होकर पिलपिला व नर्म पड़ जाता है। बीमारी वाली जगह से तना टूट जाता है। ऐसे पौधों से शराब जैसी गंध आती है जो इस बिमारी का प्रमुख लक्षण है ।

        1. फसल में नाइट्रोजन व पोटाश उर्वरकों की निर्धारित मात्रा दें। अधिक नाईट्रोजन उर्वरक न दें।

        2. खेत में पानी न ठहरने दें व उसके निकास का सही प्रबन्ध करें।

        3. निचले व मध्यवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों में रोग प्रतिरोधी किस्में लगाएं।

        पत्तों का झुलसा: प्राय झुलसा 30-40 दिन की फसल पर पहले निचले पत्तों पर आता है और फिर ऊपर की तरफ बढ़ता है। टरसिकम किस्म के झुलसे में लंबे, तुर्क, हरे भूरे या गहरे भूरे 15 सै. मी. लंबे धब्बे बनते हैं जबकि मेडिस किस्म के झुलसे में गहरे भूरे व 1-2 सैं. मी. समानान्तर धब्बे बनते हैं। यह बिमारी पौधे के सभी भागों पर आती है। अधिक प्रकोप होने पर पत्ते सूख जाते हैं और पौधे जल्दी ही मर जाते हैं।

        1. 10 जून से पहले लगी फसल में कम बिमारी आती है ।

        2. नाईट्रोजन उर्वरक की निर्धारित मात्रा दें ।

        3. रोग के प्रकट होते ही जिनेब (इंडोफिल जैड-78) या मैन्कोजेब (इंडोफिल एम-45) 1500 ग्राम 750 लीटर पानी प्रति हैक्टेयर का छिड़काव करें। बीज वाली फसल, पॉप कार्न और स्वीट कार्न की फसल में 10 दिन के अंतर पर एक और छिडकाव करें।

        भूरा धारीदार मृदुरोमिल आसिता रोग: पत्तों पर पतली हरिमाहीन या पीली धारियां जो 3-7 मि.मी. चौड़ी होती है और जिनमें शिराएं स्पष्ट दिखाई देती हैं, प्रकट होती हैं। बाद में यह धारियां गहरी लाल सी हो जाती हैं। सुबह के समय इन धब्बों के ऊपर सफेद सा मक्खन रंग की मखमली कवक-वृद्धि दिखाई देती है जो इस बिमारी के स्पष्ट लक्षण हैं।

        1. बिमारी के लक्षण प्रकट होते ही मेन्कोजंब (इंडोफिल एम-45) 1500 ग्राम 750 लीटर पानी प्रति हैक्टेयर का छिड़काव दो सप्ताह के अंतराल पर करें।

        2. रोगरोधी किस्मों का चुनाव करें।

        शीर्ष की कंगियारी: इस बिमारी के लक्षण फसल में फूल व भुट्टे आने पर प्रकट होते हैं जो बाद में काले पाउडर में बदल जाते हैं।

        1. बीज का थीरम (2.5 ग्राम / किलोग्राम बीज) से उपचार करें।

        2. रोग ग्रस्त पौधों को निकाल कर जला दें ।

        3. रोग ग्रस्त खेतों में 4-5 वर्ष का फसल चक्र अपनाएं।

        बीज सड़न व पौध झुलसा रोग: रोग ग्रस्त बीज की जब बिजाई की हो और विशेषकर गीली व ठंडी भूमि में, तो बीज अंकुरण से पहले ही मर जाता है या पौधे निकलने से पहले या बाद में मर जाते हैं तने के सड़ने के कारण भूमि के निकट पौधों में झुलसा आ जाता है।

        1. केवल अनुमोदित किस्मों की बिजाई करें। कटा-फटा बीज न बोयें ।

        2. बीज का थिरम या (4 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से उपचार करें ।

        3. गीली ठंडी भूमि में बिजाई न करें।

        धारीदार पर्ण एवं पर्णच्छद अंगमारी: इस रोग के लक्षण पौधों की जड़ों एवं डण्ठलों को छोड़कर सभी भागों में प्रकट होते हैं । लगभग 40-50 दिन की फसल पर पत्तों या तनों से लपेटे पत्तों के भागों पर लाल से भूरे धब्बे बन जाते हैं। पौधों की बढ़ौतरी के साथ ये धब्बे तनों पर ऊपर की ओर बढ़ते हैं। दूर से देखने पर रोग ग्रस्त पौधे सांप की केंचुली के जैसे नजर आते हैं। कई बार भुट्टों में दाने ही नहीं बनते हैं। इस बिमारी से जड़ व नर फूल भाग के अतिरिक्त, पौधे के सभी भाग प्रभावित होते हैं।

        1. रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें।

        2. प्रतिरोधी किस्मों की बिजाई करें।

        3. इस फसल में पंक्ति से पंक्ति व पौधे से पौधे का अनुमोदित अंतर रखें ताकि बिमारी वाले पत्तों का स्वस्थ पत्तों के साथ आपस में स्पर्श न हो ।

        4. जब फसल 40-50 दिन की हो तो रोग ग्रस्त भागों को निकाल कर जला दें ।

        5. रोग के प्रकट होते ही मैनकोजैब 75 डब्लयु. पी. (इंडोफिल एम-45, 0.25 प्रतिशत) का छिड़काव करें और उसके बाद बिमारी की गंभीरता को देखते हुए 10 दिन के अंतर पर छिड़काव करें ।

        पछेता मुरझान: नर फूल आने की अवस्था में पत्ते एकदम मुरझाने लगते हैं व गहरे हरे हो जाते हैं। पौधे का निचला भाग सूखकर सिकुड़ जाता है व खोखला हो जाता है। काटने पर अंदर का भाग पीला होता है। यह बिमारी रेतीली और चिकनी मिट्टी में अधिक होती है।

        1. बिजाई के समय पोटाश उर्वरक की निर्धारित मात्रा दें, विशेषकर उन स्थानों पर जहां सूखा पड़ता हो।

        2. नरफूल आने की अवस्था पर सिंचाई करें।

        भूरा धब्बे: इस बिमारी के लक्षण पत्तों, पर्णच्छद व तने पर आते हैं परंतु पत्तों के शुरू में झुण्ड में बनते हैं जो पहले पीले होते हैं और बाद में भूरे हो जाते हैं। तनों पर भी गांठों के पास बिमारी आती है। अधिक प्रकोप होने पर तना टूट जाता है।

        1. फसल चक्र अपनाएं तथा खेत को घास-फूस व अवशेषों से साफ रखें।

        2. रोगरोधी किस्मों का प्रयोग करें।